मेरे साथी:-

Thursday, April 28, 2016

पानी की बूँदें

पानी की बूँदे भी,
मशहूर हो गई ।

कल तक जो यूँही,
बहती थी बेमतलब,
महत्वहीन सी यहाँ वहाँ,
फेंकी थी जाती,
समझते थे सब जिसके,
मामूली सी ही बूँदें,
आज वो पहुँच से,
दूर हो गई ।
पानी की बूँदें भी,
मशहूर हो गई ।

महत्व नहीं थे देते,
कोई भी इसको,
न जाने कहाँ कहाँ,
बेकार बह गई ।
लोटे भर की जगह,
बाल्टी भर बहाया,
आज वही सबके लिए,
हूर हो गई ।
पानी की बूँदें भी,
मशहूर हो गई ।

रौद्र रुप दिखाया,
जब सूर्यदेव ने अपना,
नदियाँ, नाले, तालाब,
सूखते चले गए,
भूगर्भ जल भी होने लगा,
पहुँच से बाहर ।
तब यही बूँदें,
नूर हो गई ।
पानी की बूँदें भी,
मशहूर हो गई ।

कीमत क्या है इसकी,
पूछ लो जरा उससे,
एक ग्लास के लिए,
मीलों जो हैं जाते,
मिलता हमे आसानी से,
छूटकर हम लुटाते ।
अब तो हर जगहें,
लातूर हो गई ।
पानी की बूँदें भी,
मशहूर हो गई ।

कहने लगी ये बूँदें,
संरक्षण करो मेरा,
वर्ना क्या दोगे,
पीढ़ियों को अपने,
नसीब से बाहर,
हो जाऊंगी उनके ।
संभल जाओ अब भी,
कहकर फुर्र हो गई ।
पानी की बूँदें भी,
मशहूर हो गई ।

-प्रदीप कुमार साहनी

Thursday, March 24, 2016

जोगिड़ा सारा रा रा

जोगिड़ा सारा रा रा, जोगिड़ा सारा रा रा ।
वाह भाई वाह वाह, वाह खिलाड़ी वाह वाह ।

कांग्रेस को पड़ गई, मोदी की यूँ मार,
कांग्रेस को पड़ गई, मोदी की यूँ मार,
राहुल खुद को भूल गए, याद कन्हैया कुमार ।

बोलो हय्या हय्या हय हय ।
जोगिड़ा सारा रा रा, जोगिड़ा सारा रा रा ।
वाह भाई वाह वाह, वाह खिलाड़ी वाह वाह ।

दिल्ली वालों ने देखी, टेढ़ी मेढ़ी चाल,
दिल्ली वालों ने देखी, टेढ़ी मेढ़ी चाल,
बड़ा नौटंकीबाज है,  नाम है केजरीवाल ।

बोलो हय्या हय्या हय हय ।
जोगिड़ा सारा रा रा, जोगिड़ा सारा रा रा ।
वाह भाई वाह वाह, वाह खिलाड़ी वाह वाह ।

शिक्षक को वेतन नहीं, सूना है त्योहार,
शिक्षक को वेतन नहीं, सूना है त्योहार,
ओवन गिफ्ट में बांट रही, चोर नीतिश सरकार ।

बोलो हय्या हय्या हय हय ।
जोगिड़ा सारा रा रा, जोगिड़ा सारा रा रा ।
वाह भाई वाह वाह, वाह खिलाड़ी वाह वाह ।

माया हाथी पर चढ़ी, लड़ने को तैयार,
माया हाथी पर चढ़ी, लड़ने को तैयार,
नाव बीच में अटक पड़ी, मिले नहीं पतवार ।

बोलो हय्या हय्या हय हय ।
जोगिड़ा सारा रा रा, जोगिड़ा सारा रा रा ।
वाह भाई वाह वाह, वाह खिलाड़ी वाह वाह ।

एक समस्या और यहाँ, आकर हो गया खड़ा,
एक समस्या और यहाँ, आकर हो गया खड़ा,
छोटका बेटा लालू का, है बड़का से बड़ा ।

बोलो हय्या हय्या हय हय ।
जोगिड़ा सारा रा रा, जोगिड़ा सारा रा रा ।
वाह भाई वाह वाह, वाह खिलाड़ी वाह वाह ।

कटप्पा ने बाहुबलि को, मार दिया जनाब,
कटप्पा ने बाहुबलि को, मार दिया जनाब,
क्यों मारा ये आज तक, मिला नहीं जवाब ।

बोलो हय्या हय्या हय हय ।
जोगिड़ा सारा रा रा, जोगिड़ा सारा रा रा ।
वाह भाई वाह वाह, वाह खिलाड़ी वाह वाह ।

थूर देखे एक में, सिंह भगत का नूर,
थूर देखे एक में, सिंह भगत का नूर,
भौजी जी की मौत की पहले, बात बको हुजूर ।

बोलो हय्या हय्या हय हय ।
जोगिड़ा सारा रा रा, जोगिड़ा सारा रा रा ।
वाह भाई वाह वाह, वाह खिलाड़ी वाह वाह ।

मोदी ने बस दो साल में, दिया है सबको हिला,
मोदी ने बस दो साल में, दिया है सबको हिला,
देशद्रोही कीड़े निकले, बिल से बिल बिला ।

बोलो हय्या हय्या हय हय ।
जोगिड़ा सारा रा रा, जोगिड़ा सारा रा रा ।
वाह भाई वाह वाह, वाह खिलाड़ी वाह वाह ।

होली हे !!!!

-प्रदीप कुमार साहनी

गाँव की होली

असली होली गाँव की होली,
अपनी माटी अपनी बोली,
एक अलग ही जोश जहाँ पर,
खुशियाँ ही हर एक की झोली ।

कई दिनों से आस है रहता,
हर शाम मजलिस है सजता,
मंदिर और चौराहों पर नित,
ढोलक और करताल है बजता ।

लोक लुभावन लोक गान में,
नई ताजगी इस जान में,
जोगिड़ा सा रा रा रा के,
मन झूमते मधुर तान में ।

दहन होलिका की तैयारी,
मेला सा माहौल बलिहारी,
घर घर से चंदा लकड़ी का,
रतजग्गा भूल दुनियादारी ।

घर घर बनता पकवान यहाँ,
मालपुआ, गुजिया पान यहाँ,
क्या निर्धन क्या पैसे वाले,
रख एक दूजे का मान यहाँ ।

फिर रंगों की खेल अनोखा,
गिला नहीं, शिकवा न धोखा,
हर दुख दुविधा दूर वही क्षण,
रंग लागे हर एक को चोखा ।

पूरे गाँवों में घुम घुम,
बच्चे बूढ़े हैं मचाते धूम,
क्या भैया क्या भौजी, दादी,
सबको होली के रंग ले चुम ।

ढोलक, मृदंग, मंजीर बजा,
गाकर नाचे मस्ती है मजा,
जा द्वार द्वार खेले होली,
मांगे होली हर घर घर जा ।

हर एक रंगे इस होली में,
कोई घर में नचे कोई टोली में,
हर भेद भाव को भूल भला,
क्यों न गायें निज बोली में ।

जो गाँव की होली में है बात,
हैं कहाँ कहीं ऐसी सौगात,
दो चार मित्र, मेहमान बुला,
बीते होली के दिवस व रात ।

गाँव की होली असली होली,
अजब ठहाके गजब ठिठोली,
मस्ती में झूमे हर मन यूँ,
असली होली गाँव की होली ।

-प्रदीप कुमार साहनी

Wednesday, March 23, 2016

शहीद दिवस पर नमन

भारत माता के लाल थे वे,
आजादी की थी चाह बड़ी,
भारत माता के शान में बस,
चल निकले मुश्किल राह बड़ी ।

स्वाधीनता के दीवाने थे,
गौरों का दम जो निकाला था,
नस नस में थी आग दौड़ती,
खुद को आँधी में पाला था ।

इंकलाब की आग देश में,
खुद जलकर भी लगाया था,
मूँद कर आँखें सोये थे जो,
फोड़ कर बम यूँ जगाया था ।

सच्चे सपूत थे माता के,
अपना सुख दुःख सब भूल गए,
माता की बेड़ी तोड़ने को,
हँसते फांसी में झूल गए ।

वे बड़े अमर बलिदानी थे,
फंदे को जिसने चूमा था,
मेरा रंग दे बसंती चोला पर,
मरते मरते भी झूमा था ।

आदर्श बने लाखों युवा के,
नाम है जब तक है गगन,
सिंह भगत, सुखदेव, गुरु,
है आपको शत-शत नमन ।

भगतसिंह,सुखदेव और राजगुरु के शहादत दिवस पर शत-शत नमन । 

-प्रदीप कुमार साहनी

Tuesday, March 22, 2016

चलो नया एक रंग लगाएँ

लाल गुलाबी नीले पीले,
रंगों से तो खेल चुके हैं,
इस होली नव पुष्प खिलाएँ,
चलो नया एक रंग लगाएँ ।

मानवता की छाप हो जिसमे,
स्नेह सरस से सना हो जो,
ऐसी होली खूब मनाएँ,
चलो नया एक रंग लगाएँ ।

जात-पात की हर दीवारें,
और न दिखे हम सब में,
रंगों से रंगभेद मिटाएँ,
चलो नया एक रंग लगाएँ ।

हो राष्ट्रप्रेम हर दिल में बस,
भारत माँ की जयकार हो,
राष्ट्रवाद हर ओर फैलाएँ,
चलो नया एक रंग लगाएँ ।

इस समाज की कुव्यवस्था पर,
चोट करे हम हरदम ही,
नव पीढ़ी को सही सिखाएँ,
चलो नया एक रंग लगाएँ ।

सही को सही कह पाये हम,
गलत हो जो धिक्कार करें,
मन में नव रंगोली सजाएँ,
चलो नया एक रंग लगाएँ ।

-प्रदीप कुमार साहनी

Monday, March 21, 2016

ढपोरशंख

 भाषणबाजी में अव्वल, करने धरने में शून्य अंक,
आज के नेता हो चले हैं, जैसे कि ढपोरशंख ।

रोज नए नए वादे होते, करने के न इरादे होते,
जनता को भी लिए लपेटे, इनके कई कई प्यादे होते ।

राजनीति एक दल दल जैसी, ये खुद ही बन गए पंक,
निरे निखट्टू आज के नेता, जैसे कि ढपोरशंख ।

बस चुनाव में इनका आना, जीत कर ठेंगा है दिखाना,
वादे इनको याद करा दो, पहले से तैयार बहाना ।

दल बदलू और स्वार्थ परक ये, अपनो को ही मारे डंक,
लाभ के लिए कुछ भी कर दें, हो गए ये ढपोरशंख ।

होली तो इनकी ही हो ली, इनकी ही होती है दीवाली,
असली पैसों से ये खेले, पर सारे हैं लोग ये जाली ।

मुँह बाये हम आम लोग हैं, माल खा रहे ये कलंक,
अव्वल अब मक्कारी में भी, ये नेता हैं ढपोरशंख ।

- प्रदीप कुमार साहनी

Wednesday, March 16, 2016

आओ बदल लें खुद को थोड़ा

बड़ी-बड़ी हम बातें करते,
पर कुछ करने से हैं डरते,
राह को थोड़ा कर दें चौड़ा,
आओ बदल लें खुद को थोड़ा ।

ख्वाब ये रखते देश बदल दें,
चाहत है परिवेश बदल दें,
पर औरों की बात से पहले,
क्यों न अपना भेष बदल दें ।

चोला झूठ का फेंक दे आओ,
सत्य की रोटी सेंक ले आओ,
दौड़ा दें हिम्मत का घोड़ा,
आओ बदल लें खुद को थोड़ा ।

एक बहाना है मजबूरी,
खुद से है बदलाव जरुरी,
औरों को समझा तब सकते,
खुद सब समझो बात को पूरी ।

भीड़ में खुद को जान सके हम,
स्वयं को ही पहचान सकें हम,
अहम को मारे एक हथौड़ा,
आओ बदल लें खुद को थोड़ा ।

दो चेहरे हैं आज सभी के,
बदल गए अंदाज सभी के,
अपनी दृष्टि सीध तो कर लें,
फिर खोलेंगे राज सभी के ।

पथ पर पग पल-पल ही धरे यूँ,
जब-जब जग की बात करे यूँ,
क्या कर जब तक दंभ न तोड़ा,
आओ बदल ले खुद को थोड़ा ।

-प्रदीप कुमार साहनी

Sunday, February 28, 2016

अजब गजब संसार

अजब गजब दुनिया है भैया,
अजब गजब हैं लोग ।
रहे भागते जीवन भर ये,
क्या ना करें प्रयोग ।।

पैसों पर ही ध्यान है सबका,
नहीं कहीं है चैन।
दिन भर तो ये रहे ऊँघते,
नींद बिना है रैन ।।

रिश्ते नाते भूल गए सब,
हुआ ये जीवन व्यर्थ ।
स्वार्थ सिद्धि ही जीवन इनका,
परहित में असमर्थ ।।

सब पर ही संदेह है अब तो,
नहीं कहीं विश्वास ।
जिससे थोड़ा लाभ है मिलता,
वही है खासम ख़ास ।।

देश की खाकर लगे बोलने,
लोग विदेशी बोल ।
दुश्मन का गुणगान हैं करते,
कैसा है ये झोल ।।

-प्रदीप कुमार साहनी

Monday, February 15, 2016

नींद नहीं अब आती है

खो गए हैं सुकून के वो पल,
रहा नहीं खुशियों का आँचल,
बिस्तर नहीं बुलाती है,
नींद नहीं अब आती है ।

भागदौड़ में सबकुछ छूटा,
चैन तो जैसे बैठा रुठा,
जीवन रीत निभाती है,
नींद नहीं अब आती है ।

आपस में बस होड़ है लगी,
चोट भी पर बेजोड़ है लगी,
निद्रा देवी बस जाती है,
नींद नहीं अब आती है ।

अपनों का सानिध्य कहाँ अब,
मन सबका द्वैविध्य यहाँ अब,
माँ लोरी याद आती है,
नींद नहीं अब आती है ।

स्वयं को ही है खोया हमने,
एक अकेले रोया हमने,
अंत: सदा लगाती है,
नींद नहीं अब आती है ।

पैसे पर सब बिकता है अब,
सत्य फिर कहाँ दिखता है अब,
नींद नहीं पर बिकाती है,
नींद नहीं अब आती है ।

नहीं रहा अब निश्छल सा मन,
फैल रही है कटुता जन जन,
बांधव्य भी अब रुलाती है,
नींद नहीं अब आती है ।

शत्रु मित्र भेष में फिरते,
संकट चारो ओर से घिरते,
मस्तिष्क भी अकुलाती है,
नींद नहीं अब आती है ।

-प्रदीप कुमार साहनी

Saturday, February 13, 2016

खो दिए फिर हमने वीर

देश की शान के लिए खड़े जो,
हर मुश्किल में रहे अड़े जो,
मौत से हारे वो आखीर,
खो दिए फिर हमने वीर ।

मातृभूमि की लाज के लिए,
लड़ते रहे जो जीवन भर,
अमन-चैन के लिए जिये वो,
कभी नहीं उन्हे लगा था डर ।

प्रकृति से हार गए वो,
जीवन अपना वार गए वो,
चले तोड़ जीवन जंजीर,
खो दिए फिर हमने वीर ।

कभी हैं छल से मारे जाते,
कभी अपनो से धोखा खाते,
आतंक को धूल सदैव चटाया,
कर्तव्य को पर नहीं भुलाते ।

अश्रुपूरित हर नेत्र है आज,
देश की पूरी एक आवाज,
श्रद्धा सुमन अर्पित बलबीर,
खो दिए फिर हमने वीर ।

-प्रदीप कुमार साहनी

है इनपे धिक्कार

सियासती ये लोग चंद, है इनपे धिक्कार ।
भारत में रहकर करे, पाक की जय जय कार ।।
पाक की जय जय कार, लगे विरोधी नारे ।
पुलिस महकमा शांत क्यों, देशद्रोही ये सारे ।।
हो उचित कार्रवाई जल्द, जेल में इनको डालो ।
देश रक्षा पर राजनीति, छोड़ सियासत वालो ।।

कश्मीर की आजादी, माँग है ये बदरंग ।
भारत से कैसे पृथक, है अभिन्न ये अंग ।।
है अभिन्न ये अंग, हिम्मत न कर इतना ।
जन-जन ये दिखला देगा, देश में ताकत कितना ।।
धैर्य है कमजोर नहीं, जो उठ गया शमशीर ।
बलुचिस्तान भी जायेगा, मांगा जो कश्मीर ।।

ले धर्म का नाम ये,  करते हैं कुकर्म ।
मानवता के दुश्मन ये, नहीं कोई है धर्म ।।
नहीं कोई है धर्म, मातृभूमि न जाने ।
भारत को बर्बाद करें, ऐसा ये सब माने ।।
कब तक ऐसे देखते, रहेंगे हम जन आम ।
कुछ भी क्यों कर जाये ये, ले धर्म का नाम ।।

शहीद उसे है कह दिया, जो आतंक का नाम ।
ताक पे जिसने रख दिया, देश का ही सम्मान ।।
देश का ही सम्मान बस, करो अगर है रहना ।
देश की जनता जागी है, अब नहीं है सहना ।।
शर्म करो ओ गद्दारों, आतंक के मुरीद ।
देश के लिए जान दे, हैं बस वही शहीद ।।

-प्रदीप कुमार साहनी

Friday, February 12, 2016

माँ सरस्वती

२००वीं पोस्ट

( माँ शारदे की असीम अनुकंपा से सरस्वती पूजा के पावन दिन में इस ब्लॉग की २००वीं प्रस्तुति पेश कर रहा हूँ ।
इस ब्लॉग पर सौवीं प्रस्तुति भी सरस्वती पूजा के ही दिन 28-01-2012 को हुआ था ।  बीच में लिखना बंद सा हो गया था, पर माता की कृपा अपरम्पार है ।)
वंदन करुँ हे सरस्वती, आस कृपा का हाथ ।
नित माते मैं ध्यान धरुँ, हो स्नेह बरसात ।।

पूजूँ माते आपको, ले पुष्प की माल ।
दया दिखाना बस तनिक, उन्नत हो यह भाल ।।

ज्ञान दीप बस जल सके, दे इतना आशीष ।
मन ही मन में नाम जपुँ, घंटे मैं चौबीस ।।

परमारथ के मार्ग पर, रहुँ अटल अविचल ।
भक्ति भाव हृदय रहे, पावन व निश्छल ।।

हे माते इस अज्ञ को, दे देना प्रसाद ।
मानस में स्वच्छ भाव रहे, नहीं कोई अवसाद ।।

कलम यूँही चलती रहे, मात ये रखना ध्यान ।
सेवक हूँ वीणापाणि माँ, सदा ही रखना मान ।।

जय जय माते मैं करुँ, हंस विराजिनि आप ।
मेरी लेखनि अस्त्र-शस्त्र, यही मेरा सर-चाप ।।

चतुर्भुजी माँ शारदे, हाथ जोड़ हे प्रणाम ।
आपके ही आशीष से, मिले नए आयाम ।।

१००वीं पोस्ट

सभी को माँ सरस्वती पूजा की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

-प्रदीप कुमार साहनी

Thursday, February 11, 2016

ॐ -हे भोलेनाथ- ॐ


हे भोलेनाथ मैं करुँ निवेदन,
आप हो दानी, मैं अकिंचन ।

आप नाथ हो हे त्रिपुरारी,
दास हूँ मैं भोले भंडारी ।



सत्य, शिव और आप हैं सुन्दर,
पूजे जिनको स्वयं ही इंदर ।

अवढर दानी आप को माने,
तनिक हमारे कष्ट भी जाने ।

शिवा समेत कैलाश विराजे,
नाग गला, चन्द्र शीष में साजे ।

महादेव हे हर-हर, हर-हर,
कृपा बनाना नाथ डमरूधर ।

बंदऊँ हे त्रिनेत्र के स्वामी,
चरण वंदना अंतर्यामी ।

कालों के भी काल आप हो,
भूतनाथ विशाल आप हो ।

सोमनाथ हे, आप रामेश्वर
आस बड़ी है, हे परमेश्वर ।

ॐ नम: शिवाय कहूँ मैं,
बिगड़ी दो बनाय कहूँ मैं ।

भक्तों पर सदा कृपा है डाली,
झोली मेरी भी जाय न खाली ।

-प्रदीप कुमार साहनी

Wednesday, February 10, 2016

प्रिये क्यों

तनिक विलंब जो हुई है हमसे,
मुख मंडल यूँ क्षीण प्रिये क्यों,
अति लघु सी एक बात पे तेरे,
नैन यूँ तेज विहीन प्रिये क्यों ?

प्रेम प्रतीक्षा का सुख हमने,
भोग लिया है आज परस्पर,
जैसे तुम अधीर यहाँ थी,
मैं भी न धरा धीर निरंतर ।

मधुर मिलन की इस बेला में,
मन ऐसे मलीन प्रिये क्यों,
सुखदायक क्षण में ऐसे यूँ,
हृदय ये ऐसा दीन प्रिये क्यों ?

आलिंगन आतुर भुज दोनो,
मौन मनोरथ में हैं लागे,
अभिलाषा तेरी भी ऐसी,
क्यों न फिर आडंबर भागे ?

अधर हैं उत्सुक, करें समर्पण,
पद तेरे गतिहीन प्रिये क्यों ?
हृदय दोऊ हैं एक से आकुल,
अब भी लाज अधीन प्रिये क्यों ?

नयन भाव विनिमय को बेकल,
अधर सुस्थिर क्या है माया,
तू मुझमे निहित प्रिये है,
और मुझमे तेरी ही छाया ।

श्वास मध्य न भिन्न पवन हो,
प्रेम में न हो लीन प्रिये क्यों,
अंतर्मन भी एक हो चले,
खो न हो तल्लीन प्रिये क्यों ?

-प्रदीप कुमार साहनी

शायरी अगर है करनी, प्यार कर लो

शायरी अगर है करनी, प्यार कर लो,
शिद्दत से हुश्न-ए-दीदार कर लो ।

महबूब को पहले दिल से परख लो,
दिल तोड़ने की शर्त खुद ही रख लो ।

ये इश्क मुआ ऐसा, सबकुछ करा देगा,
कामयाब न हो पर शायर बना देगा ।

आँखों पे उसकी शायरी करो तुम पूरी,
पुल बाँधों तारीफ के, ये पाठ है जरुरी ।

मिलन पे लिखो और लिखो जब जुदाई,
हर अदा पे लिखो, लिखो जब ले अँगड़ाई ।

कलम में तेरे उस वक्त आयेगा धार,
दिल टूट जायेगा, तब शायरी में निखार ।

फिर क्या, शायरी की तब आयेगी बाढ़,
हर लफ्ज होगा तेज, हर पंक्ति होगी गाढ़ ।

टूटा हुआ ये दिल इस कदर सदा देगा,
हर लफ्ज बनेगी शायरी जब यार दगा देगा ।

बेवफाई और दर्द पे करो नज्म का ईरादा,
आह पे, कराह पे वाह वाह होगी ज्यादा ।

सनम न रहे पर शायर होगे तब पूरे,
दिल के जज्बात लिखो, रह गए जो अधूरे ।

मुकम्मल इश्क न मिला, तो शायरी ही करो,
मुशायरे की बढ़ाओ शान और डायरी ही भरो ।

शायरी अगर है करनी तो ये नुस्खा है नायाब,
चुन ही लो महबूब को, इश्क करो जनाब ।

प्रदीप कुमार साहनी

Tuesday, February 9, 2016

वीर लड़ाका तुझे नमन है

हे वीर लड़ाका तुझे नमन है,
लाल भारती तुझे नमन है ।

हर मुश्किल से लड़ लेते हो,
शौर्य सहित सब सह लेते हो ।
दुश्मन को हुँकार दिखाते,
कैसी भी दशा में रह लेते हो ।

युद्ध स्थल ही तेरा चमन है,
वीर लड़ाका तुझे नमन है ।

दुश्मन से हो देश बचाना,
या बाढ़ से हमे बचाना,
प्राकृतिक विपदा हो कोई,
तुझको बस आता है बचाना ।

तुझसे ही फैला ये अमन है,
वीर लड़ाका तुझे नमन है ।


है आतंक से लोहा लेते,
सीमा पर भी सुरक्षा देते,
बर्फीले धरती पर भी तो,
भारत माँ की लाज बचाते ।

वतन परस्ती तेरा लगन है,
वीर लड़ाका तुझे नमन है ।

अपना सुख तुझे याद कहाँ है,
जोखिम से भरा तेरा जहाँ है,
भारत को परिवार बनाया,
परिजन को भी त्यागा यहाँ है ।

न्योच्छावर तूने किया जनम है,
वीर लड़ाका तुझे नमन है ।

-प्रदीप कुमार साहनी

Monday, February 8, 2016

यादों में तेरे दिन गुजर जाता रहा है

भीड़ में रहकर भी वास्ता है तन्हाई से,
यादों में तेरे दिन गुजर जाता रहा है ।

तू खिलखिलाती रही है, मैं मुस्कुराता रहा हूँ,
मुस्कुराहट का सबब दिल बताता रहा है ।

आँखें बंद कर अकसर यादें टटोलता हूँ मैं,
तू आती नहीं है, और ये जाता रहा है ।

रुसवाई की शिकायत क्या करोगी मुझसे,
प्यार मेरा खुद रुसवा कराता रहा है ।

मुफलिसी का आलम अब पुछो नहीं हमसे,
मैं जीतता रहा हूँ, ये हराता रहा है ।

चराग-ए-ईश्क लेकर, हूँ आगे मैं आया,
जल यादों का दिया यूँ सताता रहा है ।

इस हुश्न पर तेरे, मैं कुर्बान तो हो लूँ,
पर ईश्क ये नामुराद यूँ रुकाता रहा है ।

रहनुमा-ए-ईश्क कभी बनना नहीं है मुझको,
प्यादा बनने की चाह दिल लुभाता रहा है ।

दूर तू मुझसे,यूँ जाती रही हर वक्त ही,
दिल कमबख्त सपनो में घर बसाता रहा है ।

-प्रदीप कुमार साहनी

कवि की मनोदशा

एक कवि हूँ मैं,
सदैव ही उपेक्षित,
सदैव ही अलग सा,
यूँ रहा हूँ मैं ।

पता नहीं पर क्यों,
सब भागते हैं मुझसे,
हृदय की बात बोलूँ,
तिरस्कार है होता ।

कविता ही दुनिया,
कविता ही भावना,
कविता ही सर्वस्व,
मेरा भंडार है यही ।

छंद मेरे कपडे,
अलंकार मेरे गहने,
रचना ही है भोजन,
मेरा संसार यही है ।

भावनाएँ अकसर बहकर,
कविता में है ढलती,
फिर भावनाओं का मेरे,
यूँ बहिष्कार क्यों है ।

क्यों नहीं सब सुनते,
खुले दिल से कविता,
हठ कर कर सबको,
कब तक सुनाता जाऊँ ।

काव्य ही जब धर्म है,
कविता ही तो कहुँगा,
सुनने को तुझे आतुर,
कैसे बनाता जाऊँ ।

क्यों नहीं समझते,
कृपा है माँ शारदे की,
मैं भी बहुत खाश हूँ,
एक कवि हूँ मैं ।

हाँ मैं कवि हूँ,
कविता ही सर्वस्व है,
देखो भले जिस भाव से,
पर हाँ मैं कवि हूँ ।

-प्रदीप कुमार साहनी

Sunday, February 7, 2016

आयेंगे ऋतुराज बसंत

खिल गए सरसों पीले पीले,
पीत रंग में रंगी धरा है,
वृक्षों में नव कोंपल फूटे,
पुनः यहाँ सब हरा भरा है ।

पतझड़ के वे रुखे से पल,
हो चला अब उसका अंत,
प्रकृति सत्कार में जुटी,
आयेंगे ऋतुराज बसंत ।

कामदेव के पुत्र बसंत का,
आना सरस, सुखद संयोग है,
कंपकंपाती शीत ऋतु का,
हम सबसे मीठा वियोग है ।

मानो ज्यों श्रृंगार कर लिया,
धरनि ने अद्भूत अनंत,
कोकिल स्वागत गान है गाती,
आयेंगे ऋतुराज बसंत ।

आम्र बौरों से लदने आतुर,
पुष्प खिले चहुँ ओर यहाँ हैं,
हिम पिघल कर चरण पखारे,
ऐसी किसकी शान कहाँ है ?

पवन देव स्वयं झूला झुलावे,
ये ऋतुओं में है महंत,
हरियाली चहुँओर शोभती,
आयेंगे ऋतुराज बसंत ।

वर्ष पुराना खोल के चोला,
बदलेगा नव वर्ष में अब तो,
खुशियों के त्योहार सजेंगे,
तन मन होंगे हर्ष में अब तो ।

माघ मास की शुक्ल पंचमी,
चेतन बन होगा जड़ंत,
सोलह कला में खिलि प्रकृति,
आयेंगे ऋतुराज बसंत ।

-प्रदीप कुमार साहनी

**कवि की दशा** (हास्य कविता)

वह कवि है,
हाहाकार है,
डरते हैं बच्चे,
बस नाम से उसके ।

सोता नहीं जब रात में,
कहती उसकी माँ,
सोता है या बुलाऊँ,
जगा होगा वो कवि,
बच्चा खुद ब खुद,
सो जाता है यूँ ही ।

बुजुर्ग भी अकसर,
कतराते हैं उससे,
कतराना क्या है जी,
घबराते हैं उससे,
डरते हैं सोचकर,
छोड़ न दे कहीं,
कविता रुपी बम कोई ।

हमउम्र भी अकसर,
मिलते नहीं दिल से,
काम का बहाना कर,
खिसकते ही जाते ।
हाफिज सईद से ज्यादा,
इससे सिहरते जाते ।

पर उसको नहीं है गम,
आखिर वो कवि है,
जिह्वा में सदैव,
कविता है बसती,
अधर जब फड़फड़ाये,
कविता है झड़ती ।
आतुर रहता सदैव,
सुनाने अपनी रचना,
पकड़ पकड़ कर अकसर,
वो सुनाता भी है ।

बीच चौपाल में अकसर,
बिना चेतावनी दिए ही,
जब शुरु कर देता है,
काव्य पाठ अपना ,
बच बचाकर लोग,
तब फूटने हैं लगते ।
गिरते-पड़ते इधर उधर,
सरकने हैं लगते ।

पर अब कला उसकी,
पहचान में है आई,
अकसर लोग उसको,
अब बुलाते भी हैं,
भीड़ हो या जाम हो,
या कैसा भी रगड़ा हो,
तीतर बितर करने को,
उसकी सुनवाते भी हैं ।

बच्चे को सुलाना हो,
या भीड़ को भगाना हो,
हर काम में उसको,
याद करते हैं लोग ।

वो बस सुनाता है,
दिल की दिल में गाता है,
कविताएँ ही बनाता है,
जिस किसी भी रुप में,
भावनाएँ बहाता है,
आखिर वो कवि है ।
वो एक कवि है ।

(कृपया हास्य रूप में ही लें)

-प्रदीप कुमार साहनी

Sunday, January 31, 2016

गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है

गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है,
लफ्जों में धूल जमा क्यों है,
आलम खामोशी का कुछ कह रहा,
अपनी धुन में सब रमा क्यों है..

डफली अपनी, अपना राग क्यों है,
मन में सबकी एक आग क्यों है,
कशमकश में है हर एक शख्स यहाँ,
रिश्तों में अब घुला झाग क्यों है..

हर आँख यहाँ खौफ जदा क्यों है,
मुस्कुराने की वो गुम अदा क्यों है,
भीड़ में रहकर खुद को न पहचाने,
खुद से ही सब अलहदा क्यों है..

एक होकर भी वो जुदा क्यों है,
आत्मा देह में गुमशुदा क्यों है,
पाषाण सा हृदय हो रहा है सबका,
तमाशबीन देख रहा खुदा क्यों है..

"प्रदीप कुमार साहनी"

Friday, January 29, 2016

रुसवा होता गया

तू होती गई जब दूर मुझसे,
मैं तुझमे ही और खोता गया,
भीड़ बढ़ती गई महफिल में,
मैं तन्हा और तन्हा होता गया ।

तू खुद की ही करती रही जब,
मैं तेरे ही सपने पिरोता गया,
तू खुशियों में नाचती गाती रही,
मैं तो याद कर तुझे रोता गया ।

मशहूर कर दिया तुझे जमाने में,
मैं खुद गुमनाम यूँ होता गया,
तू समझ बैठी मुझे नाकाबिल तेरे,
मैं काबिलियत अश्कों में डुबोता गया ।

शान से चल पड़ी तू छोड़कर मुझे,
मैं बेवफाई को तेरे भिंगोता गया,
रुसवाई तेरी तो रोक दी मैने ऐ "दीप",
पर बदले में खुद रुसवा होता गया ।

Wednesday, January 27, 2016

कैसा तेरा प्यार था

(तेजाब हमले के पीड़िता की व्यथा)

कैसा तेरा प्यार था ?
कुंठित मन का वार था,
या बस तेरी जिद थी एक,
कैसा ये व्यवहार था ?

माना तेरा प्रेम निवेदन,
भाया नहीं जरा भी मुझको,
पर तू तो मुझे प्यार था करता,
समझा नहीं जरा भी मुझको ।

प्यार के बदले प्यार की जिद थी,
क्या ये कोई व्यापार था,
भड़क उठे यूँ आग की तरह,
कैसा तेरा प्यार था ?

मेरे निर्णय को जो समझते,
थोड़ा सा सम्मान तो करते,
मान मनोव्वल दम तक करते,
ऐसे न अपमान तो करते ।

ठान ली मुझको सजा ही दोगे,
जब तू मेरा गुनहगार था,
सजा भी ऐसी खौफनाक क्या,
कैसा तेरा प्यार था ?

बदन की मेरी चाह थी तुम्हे,
उसे ही तूने जला दिया,
आग जो उस तेजाब में ही था,
तूने मुझपर लगा दिया ।

क्या गलती थी मेरी कह दो,
प्रेम नहीं स्वीकार था,
जीते जी मुझे मौत दी तूने,
कैसा तेरा प्यार था ?

मौत से बदतर जीवन मेरा,
बस एक क्षण में हो गया,
मेरी दुनिया, मेरे सपने,
सब कुछ जैसे खो गया ।

देख के शीशा डर जाती,
क्या यही मेरा संसार था,
ग्लानि नहीं तुझे थोड़ा भी,
कैसा तेरा प्यार था ?

अब हाँ कह दूँ तुझको तो,
क्या तुम अब अपनाओगे,
या जो रूप दिया है तूने,
खुद देख उसे घबराओगे?

मुझे दुनिया से अलग कर दिया
जो खुशियों का भंडार था,
ये कौन सी भेंट दी तूने,
कैसा तेरा प्यार था ?

दोष मेरा नहीं कहीं जरा था,
फिर भी उपेक्षित मैं ही हूँ,
तुम तो खुल्ले घुम रहे हो,
समाज तिरस्कृत मैं ही हूँ ।

ताने भी मिलते रहते हैं,
न्याय नहीं, जो अधिकार था,
अब भी करते दोषारोपण तुम,
कैसा तेरा प्यार था ?

क्या करुँ अब इस जीवन का,
कोई मुझको जवाब तो दे,
या फिर सब पहले सा होगा,
कोई इतना सा ख्वाब तो दे ।

जी रही हूँ एक एक पल,
जो नहीं नियति का आधार था,
करती हूँ धिक्कार तेरा मैं,
कैसा तेरा प्यार था ?

-प्रदीप कुमार साहनी

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