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Thursday, October 15, 2015

कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी

कलम उठा जब लिखने बैठा,
बाॅस का तब आ गया फोन;
बाकि सारे काम हैं पड़े,
तू नहीं तो करेगा कौन ?

भाग-दौड़ फिर शुरु हो गई,
पीछे कोई ज्यों लिए छड़ी;
शब्द अंदर ही घुट से गए,
कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी ।

घर बैठ आराम से चलो,
कुछ न कुछ लिख जायेगा;
घरवाली तब पुछ ये पड़ी,
कब राशन-पानी आयेगा ?

फिर दौड़ना शुरु हुआ तब,
काम पे काम की लगी झड़ी;
जगे शब्द फिर सुप्त पड़ गए,
कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी ।

काम खतम सब करके बैठा,
शब्द उमड़ते उनको नापा;
लगा सहेजने शब्दों को जब,
बिटिया बोली खेलो पापा ।

ये काम भी था ही निभाना,
रही रचना बिन रची पड़ी;
जिम्मेदारी और भाग दौड़ मे,
कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी ।

देर रात अब चहुँ ओर शांति,
अब कुछ न कुछ रच ही दूँ,
निद्रा देवी तब आकर बोली,
गोद में आ सर रख भी दूँ ।

सो गया मैं, सो गई भावना,
रचनामत्कता सुन्न रही खड़ी;
आँख तरेरते शब्द हैं घूरते,
कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी ।

हर दिन की है एक कहानी,
जीवन का यही किस्सा है;
अंदर का कवि अंदर ही है,
वह भाग-दौड़ का हिस्सा है ।

जिम्मेदारी के बोझ के तले,
दबी है कविता बड़ी-बड़ी;
काम सँवारता चला हूँ लेकिन,
कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी ।

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-प्रदीप