मेरे साथी:-

Monday, December 14, 2015

मन हुँकार बैठा है

उस आईने में खुद को देख रहा है कोई,
वो सज संवर के होने शिकार बैठा है ।

इस माहौल से हैं वाकिफ तुम और हम भी,
इस उजड़े हुए बाग में ढूँढने बहार बैठा है ।

फिर कोई आके सहला रहा है दिल को,
दे देने को फिर गम कोई तैयार बैठा है ।

ये प्यार करने वाले, अब फिर दिख रहे,
वो लूटने को फिर दिल-ए-करार बैठा है ।

जो जिंदा है वो बस, सो रहा है बेखबर,
जो कत्ल हो चुका वो यूँ पुकार बैठा है ।

चुन लिए हैं हमने कुछ दोस्त ऐसे ऐसे,
जो पास मैं बुलाऊँ वो फरार बैठा है ।

अब मौत की खबर भी वो गा कर सुनाता,
लेने को भी अर्थी, देखो कहार बैठा है ।

है आस रखो जिसपे वो सपने ही दिखाता,
हर सपने तेरे लेकर वो डकार बैठा है ।

अपना जिसे समझो वो हो गया पराया,
गैर कोई आके किस्मत सँवार बैठा है ।

काम का समझकर, आगे किया जिसको,
विश्वास को लुटाकर वो बेकार बैठा है ।

हर आग को बुझाना, अंधकार को मिटाना,
अलख फिर जगाने, मन हुँकार बैठा है ।

-प्रदीप कुमार साहनी

Tuesday, December 8, 2015

सफर


छुक छुक करती गाड़ी,
और ये रात का सफर,
खिड़की पे टिका सर,
हवा की ठंडी ठंडी लहर ।

बाहर धुप्प अँधेरा,
जैसे वक्त गया ठहर,
कैसी है ये जगह,
है कौन सा ये शहर ।

शांत मन है स्थिर,
सुखद सी ये पहर,
साफ स्वच्छ वातावरण,
नहीं प्रदूषण का जहर ।

चंद लम्हों का शमां,
फिर, फिर वही नजर,
फिर वही भागदौड़,
फिर, फिर वही डगर ।

Tuesday, December 1, 2015

चालक जी

(सड़क सुरक्षा पर मेरी एक रचना जो कि एक आग्रह है, सभी प्रकार की गाड़ियाँ चलाने वालों से)

संयम बरत लेने से तेरा क्या जायेगा चालक जी,
उच्च गति का रौब दिखा कर क्या पायेगा चालक जी ।

गलती एक तेरी होगी पर भुगतेंगे कई और भी,
तेरा जो होगा सो होगा, तड़पेंगे कई और भी ।

देर अगर थोड़ी होगी तो क्या जायेगा चालक जी,
जान सुरक्षित रहेगी सबकी, सुख पायेगा चालक जी ।

कहीं मवेशी पार हैं करके, बच्चे इधर-उधर हैं होते,
नहीं समझ हैं इन्हें गति की, मन माफिक वे जिधर भी होते ।

तू थोड़ा गर समझ ये लेगा, पूण्य पायेगा चालक जी,
छोटे-छोटे कदमों से खुशियाँ लायेगा चालक जी ।

सड़क नियम के हर पहलू को मान अगर तू लेता है,
खुद के साथ तू कईयों के जीवन को सुरक्षा देता है ।

नियम तोड़ना शान नहीं गर समझ जायेगा चालक जी,
चक्के कितने भी गाड़ी में, संभल जायेगा चालक जी ।

Thursday, October 15, 2015

कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी

कलम उठा जब लिखने बैठा,
बाॅस का तब आ गया फोन;
बाकि सारे काम हैं पड़े,
तू नहीं तो करेगा कौन ?

भाग-दौड़ फिर शुरु हो गई,
पीछे कोई ज्यों लिए छड़ी;
शब्द अंदर ही घुट से गए,
कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी ।

घर बैठ आराम से चलो,
कुछ न कुछ लिख जायेगा;
घरवाली तब पुछ ये पड़ी,
कब राशन-पानी आयेगा ?

फिर दौड़ना शुरु हुआ तब,
काम पे काम की लगी झड़ी;
जगे शब्द फिर सुप्त पड़ गए,
कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी ।

काम खतम सब करके बैठा,
शब्द उमड़ते उनको नापा;
लगा सहेजने शब्दों को जब,
बिटिया बोली खेलो पापा ।

ये काम भी था ही निभाना,
रही रचना बिन रची पड़ी;
जिम्मेदारी और भाग दौड़ मे,
कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी ।

देर रात अब चहुँ ओर शांति,
अब कुछ न कुछ रच ही दूँ,
निद्रा देवी तब आकर बोली,
गोद में आ सर रख भी दूँ ।

सो गया मैं, सो गई भावना,
रचनामत्कता सुन्न रही खड़ी;
आँख तरेरते शब्द हैं घूरते,
कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी ।

हर दिन की है एक कहानी,
जीवन का यही किस्सा है;
अंदर का कवि अंदर ही है,
वह भाग-दौड़ का हिस्सा है ।

जिम्मेदारी के बोझ के तले,
दबी है कविता बड़ी-बड़ी;
काम सँवारता चला हूँ लेकिन,
कलम मेरी यूँ बंधी है पड़ी ।

Sunday, September 27, 2015

मेरे दिल आज ये बता दे

मंजिल है कहीं और तेरी पर रस्ता ये कोई और है,
मेरे दिल आज ये बता दे, तू जाता ये किस ओर है ।

बेपरवाह गलियों में भटक रहा, क्या तेरे सनम का ठौर है,
मेरे दिल आज ये बता दे, तू जाता ये किस ओर है ।

रुसवा हो जमाने से, आँखों से बारिश बड़ी जोर है,
मेरे दिल आज ये बता दे, तू जाता ये किस ओर है ।

धुंधलाती यादें फिर उकरते ही, चहका तेरा पोर पोर है,
मेरे दिल आज ये बता दे, तू जाता ये किस ओर है ।

रुलाती हुई इस तमस के बाद, जगाती हुई एक भोर है,
मेरे दिल आज ये बता दे, तू जाता ये किस ओर है ।

तू बंधा पड़ा है जाने कबसे, अनदेखी सी वो डोर है,
मेरे दिल आज ये बता दे, तू जाता ये किस ओर है ।

कभी हंसती कभी रोती ध्वनि, क्या तेरा ही ये शोर है,
मेरे दिल आज ये बता दे, तू जाता ये किस ओर है ।

देखता हसरतों से रस्ते को, चांद ज्यों देखता चकोर है,
मेरे दिल आज ये बता दे, तू जाता ये किस ओर है ।

Friday, July 31, 2015

जब भी तेरी याद है आई

जब भी तेरी याद है आई,
आँखों ने बूँदे छलकाई,
सिहर उठा हर वक्त तन व मन,
जब भी तेरी याद है आई ..

तेरे मेरे प्यार के वो पल,
न जाने कैसे गए पिघल,
तड़प उठे जज्बात हृदय के,
जब भी तेरी याद है आई ..

दूर तो मुझसे हुई कई पल,
दिल से पर कहाँ पाई निकल,
होंठ मंद ही मंद मुसकाए,
जब भी तेरी याद है आई ..

बिन तेरे ये जग है सूना,
तेरे भी दिल में मैं हूँ ना,
तेरे और नजदीक हूँ आया,
जब भी तेरी याद है आई ..

Wednesday, July 29, 2015

रिश्ते- "तब और अब"

 एक वो जमाना था कभी, आज ये एक जमाना है,
तब पास रहने की इच्छा थी, अब दूर रहने का बहाना है..

अपनो के नजदीक थे तब, अब रिश्ते बस निभाना है,
तब वक्त बिताना भाता था, अब देख नजर चुराना है..

खुशियाँ ही तब चाहत थी,अब काम-दाम पे निशाना है,
तब रिश्तों को चमकाना था, अब बस कैरियर को बनाना है..

अहम थे तब जज्बात सभी, अब बना बनाया ढहाना है,
मिल जुल कर तब रहना था, अब अपनी डफली बजाना है..

तब आँख बंद हो भरोसा था, अब हर बात पे आजमाना है,
कथनी तब कुछ और ही थी, अब करनी अलग दिखाना है..

काश जो था तब फिर अब भी हो, फिर वैसे सब कुछ सजाना है..
हर अपनों को फिर जोड़ना है, हर रुठे हुए को मनाना है.

Wednesday, July 1, 2015

पिता

वट वृक्ष सा खड़ा हुआ वह शख्स पिता कहलाता है,
सामने हर संकट के होता, जो संतान पे आता है..

जिम्मेदारी के बोझ तले वो दब अक्सर ही जाता है,
हर भावों से भरा हृदय पर भावशून्य दर्शाता..

संतान के सुख में खुश होता, संतान के गम में रोता है,
माँ रो लेती फूट कर कभी, पिता सुबक रह जाता है..

हर अपनों की हर एक खुशी ढूँढ ढूँढ कर लाता है,
हर कष्टों को कर समाहित, कष्टरहित कर जाता है..

ऊँगली धर चलना सिखलाता, काँधे पे भी बिठाता है,
हर डाँट में थपकी होती, जीना वही सिखाता है..

हर मोड़ पर राह दिखाता, वो इस जनम का दाता है,
वट वृक्ष सा खड़ा हुआ वह शख्स पिता कहलाता है...

Sunday, May 24, 2015

हे हनुमत् !!

पूजूँ, मैं तो तुझे संग राम ,
हे हनुमत, कर देना कल्याण;
भज लूँ, दिन दोपहर व् शाम,
हे हनुमत, कर देना कल्याण ।

राम कृपा सदा साथ तुम्हारे,
तुम हरना प्रभु कष्ट हमारे,
देना, निज भक्ति का दान,
हे हनुमत, कर देना कल्याण ।

हर काम किये बन भक्त राम के,
मुझे देना बुद्धि मूढ़ जान के,
प्रभु, रख लेना मेरा मान,
हे हनुमत, कर देना कल्याण ।

तुम तो हो प्रभु संकटमोचन,
रखना मुझपे कृपा के लोचन,
तुझको, नमन करूँ हनुमान,
हे हनुमत, कर देना कल्याण ।


पूजूँ, मैं तो तुझे संग राम ,
हे हनुमत, कर देना कल्याण;
भज लूँ, दिन दोपहर व् शाम,

हे हनुमत, कर देना कल्याण ।

Monday, May 11, 2015

गम के आंसूं

(डायरी से एक और रचना )

अजीब सी ये अपनी दास्ताँ है बनी,
चंद लम्हें जिंदगी के घायल कर गए |

जीवन के दौड़ में बहुतो ही मिले,
कुछ साथी बने कुछ परे कर गए |

चार पल की ख़ुशी, जिंदगी भर का गम
ये चार पल की खुशियों से, बेदखल कर गए |

अकेला ही था, अकेला ही रहा,
साथ दिया जिसने खुद एकल कर गए |

जिन हाथों को अपना, समझा था मैंने,
वो हाथ ही हमें खाली हाथ कर गए |

दर्द ही मिला, अपनों से अक्सर,
ठीक समझा किसी ने, कुछ गलती कर कर |

अकेलेपन में कुछ जब तड़प उठे हम,
तो अपने ही हमसे, शिकवा कर गए |

वक़्त को समझने की कोशिश तो की,
पर वे लम्हें ही हमें नासमझ कर गए |

कम न कर पाया जिंदगी के दर्द,
गम के आंसूं दिल को पागल कर गए |

आंसूं न बहायें, जो गम में हमने,
तो गम को हम अपने नाराज कर कर गए |

03.08.2005 

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-प्रदीप